घर लिपटा हुआ
रेंगते रहता है
हर पल
कुछ मांग लिए
कुछ उलाहने लिए
और वह
इन सबसे बतियाते
एक-एक कर
निपटाती जाती है
आवश्यक-अनावश्यक मांगें,
करती है संतुष्ट
उलाहनों को
कर भरसक प्रयास,
अनदेखा रहता उसका प्रयास
उसके द्वारा संपादित कार्य,
थक जाती है
पर रुकती नहीं
रसोई में रखा भोजन
भूल जाती है खाना,
चबा लेती है
जो आए हाँथ
निपटाते कार्यों को,
शाम का नाश्ता
रात का भोजन
बनाती है
रेंगती मांगें और उलाहने
तब भी रहते हैं सक्रिय,
घर में सबको खिला
न जाने कब
सो जाती है
बिन खाए,
तुम खाई क्या
पूछे कौन बताए,
सुबह उठती है
तन पर लिए
रेंगते वही अनुभूतियां,
उसके मन भीतर भी
रेंगते रहता है गर्म छुवन
बूंद-बूंद,
घर की यही आलंबन है
चुप रहना उसका स्वावलंबन है।
धीरेन्द्र सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें