सुघड़ लगती हो
साड़ी जब तुमसे
लिपट जाती है
चूड़ियां जब रह-रह
खनखनाती है
पावों के महावर
जब गुनगुनाते हैं
हम और बहुत और
पास हो जाते हैं,
माथे की बिंदिया
सूरज की ललक
नयनों में कजरा की
श्यामल धमक
अधरों पर थिरके
अनकही बातें
कानों में बाली
झूम-झूम नाचे
भाव उन्मादी थरथराते हैं
न जाने क्यों घबड़ाते हैं
बाह्य अभिव्यक्ति
कितनी आसक्ति
व्यक्ति की जीवंतता
व्यक्ति ही व्यक्ति
आंतरिक आकर्षण
तर्करहित युक्ति
इससे प्रबल
कहां कोई शक्ति
जीवन सुरभित मिल बनाते हैं
ज़िन्दगी की धुंध को बहलाते हैं।
धीरेन्द्र सिंह
साड़ी जब तुमसे
लिपट जाती है
चूड़ियां जब रह-रह
खनखनाती है
पावों के महावर
जब गुनगुनाते हैं
हम और बहुत और
पास हो जाते हैं,
माथे की बिंदिया
सूरज की ललक
नयनों में कजरा की
श्यामल धमक
अधरों पर थिरके
अनकही बातें
कानों में बाली
झूम-झूम नाचे
भाव उन्मादी थरथराते हैं
न जाने क्यों घबड़ाते हैं
बाह्य अभिव्यक्ति
कितनी आसक्ति
व्यक्ति की जीवंतता
व्यक्ति ही व्यक्ति
आंतरिक आकर्षण
तर्करहित युक्ति
इससे प्रबल
कहां कोई शक्ति
जीवन सुरभित मिल बनाते हैं
ज़िन्दगी की धुंध को बहलाते हैं।
धीरेन्द्र सिंह
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