दिए की लौ में नयन यह निरखते रहा
एक चेहरे से लिपट रात सारी जलते रहा
सियाह परिवेश को रोशन हो जाने की तरस
दिए के आसरे हर रात दिल लड़ते रहा
हैं बहुत लोग मगर पास मेरे कोई नहीं
भीड़ रिश्तों की लिए मैं से झगड़ते रहा
मिले एक अपना उजाला कि राह मिले
गैर राहों की अंधेरों से बस उलझते रहा
है उलझी राह और मंज़िल भी बहुत ऊंची
मिलेगी रोशनी यह सोच मैं चलते रहा
रात बिखरी है बेतरतीब ना जाने क्यों
बुझे ना दीप यह सोच मैं जगते रहा.
धीरेन्द्र सिंह
भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.
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