मीठा-मीठा दर्द मिला है सयाने में
तुम बिन और रखा क्या जमाने में
बंधन में बंधे हुए जैसे हल में नधे हुए
चुपके-चुपके हैं दौड़ लगाते वीराने में
और सामाजिकता है घूरे, लगातार इसको
यह अपनी मस्ती में, बचते भरमाने में
प्यार रात को गुंजित होता, जैसे जुगनू
दिन फूलों सा लगता पल महकाने में
दिन ऐसे हैं गुजर रहे झिलमिल गुनगुन
ऐसे प्रेमी सहमत सब मिलता अनजाने में
कुछ भी नया नहीं, सदियों से होते आया
प्यार अगर तो, मिलते दुश्मन जमाने में
दिल ने दिल को चाह लिया, क्या गलती है
क्यों हो जाते बेदर्दी, उन्मुक्त जी पाने में।
धीरेन्द्र सिंह
23.10.2024
17.57
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