किताबें
वैचारिक भंवर है
पाठक मन को
गोल-गोल घुमाते
उतारते जाती हैं
खुद के भीतर
और अंततः
पाठक
किताब हो जाता है,
किताबें
होती हैं दबंग
एक आवरण की तरह
लेती हैं दबोच
और बदल देती हैं
व्यक्ति की सोच,
प्रायः प्रतिकूल
यदा-कदा अनुकूल,
किताबें
बेची जा रही हैं
आलू-प्याज की तरह,
लगे हैं
प्रकाशकों के ठेले
रंग-बिरंगे और
लग जाती हैं मंडियां
पुस्तक मेला नाम से,
बेचना कठिन हो रहा
व्यक्ति खुद को पढ़ रहा,
किताबें
नशा हैं
बौद्धिक होने की बीमारी,
हर लिखनेवाला
करे छपने की तैयारी,
प्रकाशक की कटारी,
वर्तमान में
विद्यार्थी जीवन इतर
तोड़ देती हैं किताबें
व्यक्ति की मूल सोच,
रहता भटकता
किताबों के जंगल में
तार-तार कर अपनी शोध।
धीरेन्द्र सिंह
09.04.2025
08.00