रविवार, 8 जून 2025

व्यक्तित्व

 लोग झूठ बोलते हैं शायद डर गए हैं

व्यक्तित्व रुपहला भीतर से मर गए हैं

देखा है जमाने की भीतर की दुनिया

बाहर क्षद्म रूप और वह तर गए हैं


एक परदा जरूरी है जहां कुछ पड़ा

हरे कपड़े से बालकनी भी ढक गए है

हर कुछ छुपाना भयभीत है जमाना

निजता के कमरे क्या-क्या भर गए हैं


मन दबा आवाज दबी हौसला लगे दबा

रीढ़ की हड्डी दबी यूं ही अड़ गए हैं

कहते हैं शांत रहिए समय होगा परिवर्तित

हम क्या रट लिए और क्या पढ़ गए हैं


उन्माद न दबंगता अन्याय का हो विद्रोह

शालीनता में शांत गलत राह बढ़ गए हैं

साहित्यिक, सामाजिक सुधार आवश्यक

धूल-धक्कड़, जंग व्यक्तित्व चढ़ गए हैं।


धीरेन्द्र सिंह

08.06.2025

18.10




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