लोग झूठ बोलते हैं शायद डर गए हैं
व्यक्तित्व रुपहला भीतर से मर गए हैं
देखा है जमाने की भीतर की दुनिया
बाहर क्षद्म रूप और वह तर गए हैं
एक परदा जरूरी है जहां कुछ पड़ा
हरे कपड़े से बालकनी भी ढक गए है
हर कुछ छुपाना भयभीत है जमाना
निजता के कमरे क्या-क्या भर गए हैं
मन दबा आवाज दबी हौसला लगे दबा
रीढ़ की हड्डी दबी यूं ही अड़ गए हैं
कहते हैं शांत रहिए समय होगा परिवर्तित
हम क्या रट लिए और क्या पढ़ गए हैं
उन्माद न दबंगता अन्याय का हो विद्रोह
शालीनता में शांत गलत राह बढ़ गए हैं
साहित्यिक, सामाजिक सुधार आवश्यक
धूल-धक्कड़, जंग व्यक्तित्व चढ़ गए हैं।
धीरेन्द्र सिंह
08.06.2025
18.10
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
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